जिंदगी गुमनाम सी चल पड़ी है तेरे बिना
बीच मजधार में खड़ी है तेरे बिना
जरूरत तो बहुत है तेरी मुझे
इस जिद पर क्यों अड़ी है
तेरे बिना|
रफ़्ता रफ़्ता एक दशक यूँ बीत गए
कभी बचपन बचाने में तो
कभी स्वयम को बनाने में
टूटते ही रो पड़ी
तेरे बिना|
कुछ कर गुजरने की आकांक्षा है
पर चुनौती भी इसकी परीक्षा से
ना कही छाँव है ना कहीं शीतलता
उलझे पगडंडियों पर धीमी चाल चली है
तेरे बिना।
यकीं नही होता कि कुछ साख थी मेरी
खुद के लोगो मे कुछ बात थी मेरी
रौशनी सूरज से क्या टूटी की
अब तो धूप भी अकेले ही टहलती है
तेरे बिना।
उम्मीदें हैं आज भी मिलने की,
उम्मीदें है आज भी कुछ कहने की,
इसी मीमांसा में एकाकी से स्नेह!!
इंतजार के इस कातिब से कौन कहे?
की अपने ही किश्मत की चाकरी है तेरे बिना

No comments:
Post a Comment