Friday, 23 March 2018

शिक्षा का अंतिम उद्देश्य चरित्र निर्माण होना चाहिए- महात्मा गांधी

परिचय
मानव सभ्यता के आविर्भाव से हीं भारत अपनी शिक्षा तथा दर्शन के लिए विख्यात रहा है | संभवतः भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों की उत्कृष्टता ही है जिसके कारण भारतीय संस्कृति ने संसार का सदैव पथ-प्रदर्शन किया और आज भी कर रहा है | प्राचीन भारत में प्रत्येक बालक के मस्तिष्क में पवित्रता, नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास करना तथा धार्मिक जीवन की भावनाओं को विकसित करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य था | मध्य युग भारतीय इतिहास का एक ऐसा कालखंड था जिसमें विभिन्न विदेशी विधर्मी आक्रान्ताओं ने भारत को लुटा तत्पश्चात चिरकाल तक भारत पर क्रमशः शासन भी किया| इस दौरान भारतीय शिक्षा व्यवस्था ने ‘इस्लामिक शिक्षा’ के रूप में एक नया अध्याय देखा| कुरआन मोहम्मद साहब के इस उपदेश का जीवित साक्ष्य है कि केवल चरित्रवान व्यक्ति ही उन्नति कर सकता है |
आधुनिक शिक्षा अंग्रेजों के बनाए नीव पर टिका है| चूँकि भारत लम्बे समय से विभिन्न विदेशियों द्वारा संचालित शासन का गुलाम रहा अतएव हम एवं हमारी शिक्षा भी अनेक पाटों में विभक्त हो गई| एक तरफ वर्तमान शिक्षा हमें आधुनिक व्यासायिक कौशल तो पदान कर रही है तो दूसरी तरफ यह हमें मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों से दूर धकेल रही है| अतः वर्तमान शिक्षा प्रणाली को सृजनशील बनाने हेतु शिक्षा के मूल्य, महत्व एवं उद्देश्य को सही ढंग से समझना होगा और प्राचीन भारतीय परंपरा को सामयिक रूप से प्रतिष्ठित करना होगा।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी शिक्षा को सुदृढ़ और नैतिक बनाने हेतु भागीरथ प्रयास किये| गाँधी जी का सपना देश की राजनीतिक स्वाधीनता की प्राप्ति तक सीमित नहीं था, बल्कि वे आर्थिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक, नैतिक, ग्रामोत्थान आदि सभी क्षेत्रों में भारत की देशज परम्पराओं का नवीनीकरण करते हुए नये भारत का निर्माण करना चाहते थे।

वर्तमान भारत में शिक्षा के उचित उद्देश्यों का निर्माण
दरअसल, किसी भी देश एवं समाज के लोगों की सोच, चेतना के निर्माण में शिक्षा की निर्णायक भूमिका होती है। ‘शिक्षा’ वह है जिसके द्वारा विद्या ग्रहण की जाए।सा विद्यया विमुक्तेयेकहकर विद्या की महत्ता प्रतिपादित की जाती रही है। अर्थात् शिक्षा वह है जो सन्मार्ग प्रदान करे, सन्मार्ग की प्राप्ति अज्ञान के अभाव से ही संभव है, जो कि सत्ता, ज्ञान और लाभ अर्थवाचीविदधातु से बनी है। अतः जिसके माध्यम से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास यानि भौतिक एवं अध्यात्मिक विकास हो, वह विद्या ही शिक्षा कहलाती है।
बापू ने आधुनिक एवं नए सन्दर्भ में शिक्षा-दर्शन की उपादेयता को अपने पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में रेखांकित किया है| अॅग्रेजी शिक्षा के जनविरोधी चरित्र को लेकर गहरी पीड़ा उन्होंने प्रकट कि है । उनका मत था की अक्षर-ज्ञान से आगे बढ़कर अपने देश-समाज की परम्पराओं, जीवन-बोध, जीवन-मूल्यों का अभिज्ञान कराते हुए उसके अनुरूप राष्ट्रोत्थान एवं समाजोत्थान की दिशा में लोगों को जागरूक एवं सक्रिय करने के अमोघ अस्त्र का दूसरा नाम ही शिक्षा है। लेकिन अॅग्रेजों ने अपने शासन-तंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए यहाँ पर ऐसी शिक्षा पद्धति का चलन किया जो शिक्षित वर्ग को यहाँ के जन-जीवन से विमुख करने वाली एवं उनकी चाकरी करने के लिए प्रेरित करने वाली हो।  सन 1909 में प्रकाशित इस पुस्तक में गाँधी जी ने न सिर्फ यूरोप की मशीनी सभ्यता की कठोर आलोचना की, अपितु उन्होंने भारत में अॅग्रेजों द्वारा थोपी गई शिक्षा पद्धति का तीव्र प्रतिवाद भी किया। अॅग्रेजी शिक्षा पद्धति से क्षुब्ध, असंतुष्ट गाँधी ने दो टूक शब्दों में यह कहने का साहस किया, ‘‘करोड़ों लोगों को अॅग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है”।
गाँधीजी ने अपनी शिक्षा योजना में सबसे पहले माध्यम के सवाल को महत्वपूर्ण मानते हुए इस बात पर बल दिया कि भारत के विभिन्न प्रांतों में शिक्षा देने का काम प्रांतीय भाषाओं में यानी वहाँ की मातृभाषाओं में किया जाना चाहिए। अॅग्रेजी भाषा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा के बरअक्स मातृभाषा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा ही उन्हें अत्यधिक सहज-स्वाभाविक लगी। ‘यंग इंडिया’ के एक अंक में तालीम पर चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा की अन्य देशों के सन्दर्भ में कुछ भी सत्य हो, कम-से-कम भारत में तो जहाँ अस्सी फीसदी आबादी खेती करने वाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करने वाली है, शिक्षा को निरी साहित्यिक बना देने तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है। चूँकि लोगों का अधिकांश समय रोजी कमाने में लगता है, इसलिए बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के परिश्रम का गौरव सिखाना चाहिए। स्पष्टतः गाँधी जी, शिक्षा का उद्देश्य केवल बुद्धि या मस्तिष्क के विकास तक सीमित नही मानते थे, बल्कि उसे एक सम्पूर्ण साधना-पद्धति के रूप में चलाना चाहते थे, जो मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, आर्थिक विकास के साथ-साथ उसके आध्यात्मिक उत्कर्ष में भी सहायक हो। उनकी दृष्टि में शरीर के साथ-साथ आत्मा का विकास भी शिक्षण का अविभाज्य अंग होना चाहिए। बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों का शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास करना है। उनका मत था कि ‘कोई भी पद्धति, जो शैक्षणिक दृष्टि से सही हो और जो अच्छी तरह चलायी जाय, वो आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त सिद्ध हो सकती है।’ इतना जरूर है कि शिक्षा के संबंध में उनके समस्त विचारों में एक सूत्रता, एकरूपता विद्यमान है। पूज्य बापू को पढ़ने एवं जानने के बाद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वे भारत को राजनीतिक रूप से स्वतंत्र कराने के साथ-साथ उसे अपनी भाषा, संस्कृति, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों से विछिन्न करने वाली आर्थिक रूप से पराश्रयी बना कर गुलाम बनाने वाली औपनिवेशिक शिक्षण-प्रणाली के जुए से भी मुक्त कराना चाहते थे।
उन्होंने भारत के संदर्भ में जिस तरह की शिक्षण पद्धति पर बल दिया वह सदियों से यहाँ पर प्रचलित रही शिक्षण पद्धति, जिसमें शारीरिक श्रम की प्रतिष्ठा थी, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के विकास एवं चरित्र निर्माण का महत्व था, की संगति में थी। जिस तरह उन्होंने स्वराज्य का आदर्श ‘राम राज्य’ के रूप में परिभाषित किया, उसी तरह भारतीय शिक्षा-परम्परा को ‘रमणीय वृक्ष’ मानते हुए वे उसे ही अपने ‘रामराज्य’ के लिए उपयुक्त मानते रहे। हमारे देश में चल रही शिक्षा प्रणाली में न मातृभाषा का महत्व है, न राष्ट्रभाषा हिन्दी का, न शारीरिक श्रम, न दस्तकारी का, न शील एवं चरित्र-निर्माण का।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा की “यदि शिक्षा का उद्देश्य गलत हो तो ज्ञान पाप हो जाता है”| मानव-जीवन के लिए शिक्षा वैसी ही है, जैसे किसी संगमरमर-खंड के लिए मूर्तिकला|

उपसंहार
शिक्षा जगत् के वर्तमान परिदृश्य में उच्चस्तरीय सिद्धांतों एवं अत्याधुनिक व्यवस्थाओं के बावजूद प्रतिपल विफलता एवं व्युत्क्रम बढ़ता जा रहा है। इस तथ्य की गहराई में जाने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि आज की शिक्षा अर्थ एवं काम पर प्रतिष्ठित है। यह केवल जीविकोपार्जन या आजीविका का साधन बनकर रह गई है। जो शिक्षा वैभव-विलास से जुड़कर तप से मुँह मोड़ ले, वह भला चरित्र चिंतन एवं व्यवहार में कैसे परिवर्तन ला सकती है। सत्य यही है कि आज का शैक्षिक परिदृश्य एकदम दिग्भ्रमित है।
चरित्र का अच्छा होना शारीरिक शक्ति एवं बुद्धि की प्रखरता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । चरित्र वह भूमि है जहाँ अन्य सब वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं । यदि वही खराब है तो सभी कुछ खराब होगा । आज के विद्यालयों व महाविद्यालयों में दी जानेवाली उच्च शिक्षा चरित्र-निर्माण में सहायक नहीं अपितु बाधक ही है । विदेशी नकल पर हमारे देश में चल रही इस प्रवृत्ति को देखकर कोई भी उज्ज्वल भविष्य की कल्पना नहीं कर सकता । हमने विकासोन्मुख तरुणों और तरुणियों के चरित्र को वर्तमान शिक्षा द्वारा खोखला बना डाला है। हमारे विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में छात्र नशीली तथा मादक पदार्थों के सेवन में लिप्त हैं| बसों में यात्रा करते समय यदि किसी वृद्ध को खडा देखे, किसी महिला या प्रसूता को खड़ा देखें तो हमारा मन इस बात के लिए उद्वेलित नहीं होता की अपना स्थान जरूरतमंद लोगों को उपलब्ध कराई जाय| सड़क पर ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करना जैसे स्वभाव हो हमारा| गैर सरकारी संस्था “हेल्प-ऐज इंडिया” के दस्तावेज इस बात के प्रमाण है की वृद्धाश्रमों में वृद्धों की संख्या उनके संतानों के जीवित होने के बावजूद लगातार बढ़ी है| यदि भारत के प्रख्यात विश्वविद्यालय में आतंकी की बरसी मनाते हुए अपने ही मातृभूमि के टुकड़े करने के नारे लगे, इसका मतलब वर्त्तमान में तरुणों के अन्दर चरित्र निर्माण का अभाव है| ‘आधुनिक शिक्षा’ मनुष्य एवं भारतीय पुरातन शिक्षा प्रणाली का पराभाव है जो घर, समाज, रिश्तों को बाँट रही है| लोग तकनीक उपकरणों में इस भांति समाहित है जो उन्हें समाज के प्रति सम्वादहीन एवं घटनाओं के पति संवेदनहीन बना रहा है| पहले बड़े परिवार भी एक सूत्र में बधे रहते थे, समाज में हो रही घटनाओं की सूद लेते थे परन्तु आधुनिक व्यवसायिक शिक्षा इन सभी तत्वों को स्वयं तक सिमट दिया है|
कितनी बड़ी विडम्बना है कि आजाद हिन्दुस्तान में अॅग्रेजी माध्यम से चलने वाले स्कूलों की तादाद कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ती जा रही है जहाँ मातृभाषाओं या राष्ट्रभाषा हिन्दी में बात करने को अपराध मानते हुए विद्यार्थियों को लांछित एवं दण्डित किया जाता है। आये दिन अॅग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व उसे प्रौद्योगिक एवं प्रबंधकीय ज्ञान के नाम पर शिक्षा को नैतिक-अनैतिक ढंग से पैसा कमाने का कौशल बनाता जा रहा है।
विकास के नाम पर हमारे तमाम विकास-पुरूष भारत को यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान का ‘काकटेल’ बना देना चाहते हैं – भारत की पहचान भारत के रूप में रहे, यह चाहत उनके सोच से पूरी तरह गायब है। वस्तुतः गाँधी भारत के लिए ऐसी उद्योग नीति के साथ ऐसी शिक्षा-नीति चाहते थे जिससे भारत की पहचान भारत के रूप में बनी रही। उन्होंने दुनिया की तमाम सभ्यताओं के साथ आवाजाही का महत्व स्वीकार करते हुए भी ‘अपनी जमीन पर पैर टिकाये’ रहने की टेक कभी नहीं छोड़ी। अगर हम भारत प्रेमी भारत की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक पहचान को कायम रखना चाहते हैं, तो गाँधी की अन्य बातों के अतिरिक्त शिक्षा संबंधी विचारों पर भी अमल करने की पहल करनी होगी।

शिक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों में दैवी गुणों तथा कर्तव्यपरायणता का विकास करना होना चाहिए । (वैदिक संस्कृति के संस्कारों से युक्त) धार्मिक शिक्षा इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होगी । चरित्रवान भारतीयों के निर्माण के लिए विद्यालयों में प्रत्येक विद्यार्थी को धार्मिक शिक्षा देना अनिवार्य होना चाहिए । शिक्षणप्रक्रिया में ऋषि-चेतना का समावेश करके ही उपर्युक्त विसंगतियों को दूर किया जा सकता है। वर्तमान शिक्षा में जीवन जीने की कला या अध्यात्मविद्या का समावेश आवश्यक है। इसके बिना सच्चे जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । 

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